बना परिंदा (Bana parinda)



एक था राही, एक थी उसकी कहानी
एक रास्ता और एक ही मंज़िल


उसे मिला एक परिंदा राह में,
उड़ चला जो खुले आसमां में


राही का मन ललचाया,
उड़ने की चाह ने उसे परिंदा बनाया


खो गया वो उस आसमां में,
मंज़िल की चाह को कम होता पाया


दुनिया का तब अर्थ समझ आया
रास्ते की तलाश का मज़ा उठाया


कुछ और उड़ा, फिर कुछ और
पहुंचा मंज़िल पर, जीवन पाया!


Comments

  1. उड़ रहा हुँ मैं
    खुले आसमान में
    ना किसी की तलाश में
    ना किसी की चाह में

    नजरिया बदला है मेरा
    जबसे उड़ना है सीखा
    घरोंदे का वह कमरा
    दे रहा था मुझे धोखा

    अकेला घूमूँ या हो कोई साथ में
    मस्त रहता हूँ परवर दिगार की याद में
    पर फैलावू खूबसूरत आसमाँ में
    आज़ाद हूँ; मानता हूँ सबकी आज़ादी मैं

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