एक था राही, एक थी उसकी कहानी
एक रास्ता और एक ही मंज़िल
उसे मिला एक परिंदा राह में,
उड़ चला जो खुले आसमां में
राही का मन ललचाया,
उड़ने की चाह ने उसे परिंदा बनाया
खो गया वो उस आसमां में,
मंज़िल की चाह को कम होता पाया
दुनिया का तब अर्थ समझ आया
रास्ते की तलाश का मज़ा उठाया
कुछ और उड़ा, फिर कुछ और
पहुंचा मंज़िल पर, जीवन पाया!
उड़ रहा हुँ मैं
ReplyDeleteखुले आसमान में
ना किसी की तलाश में
ना किसी की चाह में
नजरिया बदला है मेरा
जबसे उड़ना है सीखा
घरोंदे का वह कमरा
दे रहा था मुझे धोखा
अकेला घूमूँ या हो कोई साथ में
मस्त रहता हूँ परवर दिगार की याद में
पर फैलावू खूबसूरत आसमाँ में
आज़ाद हूँ; मानता हूँ सबकी आज़ादी मैं